Women’s Day Special: नारी, जो आज भी सम्मान और समानता की लड़ाई लड़ रही है। एक तरफ समाज में जेंडर इक्वालिटी की बात की जाती है तो दूसरी ओर महिला को अपमानित करने पर किसी के होंठ नहीं कांपते और न जुबां से अपशब्द निकलने बंद होते हैं…
Women’s Day Special: नारी… किसी की मां, किसी की बहन, किसी की बहु, किसी की बेटी… न जाने कितने नाम और रिश्ते से एक नारी का रूप है। इसके स्वरूप की पूजा की जाती है तो कहीं इसका अपमान भी किया जाता है। क्या एक खास दिन किसी भी नारी के लिए उन सभी अपमानों पर धूल डाल सकता है जिसने महिला की आबरू पर गंदगी की वो चादर लपेटी हो? जिसे साफ करने के लिए एक दिन क्या कई साल भी कम पड़ सकते हैं। दुनिया में हर महिला का अलग अनुभव हो सकता है लेकिन जब बात इज्जत की आती है तो सोचने का नजरिया सभी का एक समान हो सकता है।
यहां मैं पुरुष और महिला की बात नहीं करूंगी, बात समाज और उसमें महिलाओं को लेकर उठाए जा रहे सवालों की है। एक तरफ सम्मान और समानता की बात होती है तो दूसरी ओर अपमानित करने पर क्यों किसी के होंठ नहीं कांपते, क्यों जुबां से निकले शब्द पहले ही नहीं ठहरते हैं? हाल ही के मामलों पर ही गौर कर लिया जाए तो ऐसी कई हादसों ने न्यूज चैनल से लेकर अखबारों की हेडलाइन में जगह बनाई जहां पति की मौत का कारण पत्नी को बताया गया। किसी ने पत्नी के नाम नोट लिख भेजा तो कोई ऑडियो में अपनी बात कह, दुनिया को अलविदा कह गया। हो सकता है कि पति की आत्महत्या की वजह उनकी पत्नी रही होगी लेकिन क्या ये सही है कि इसका दोष हर महिला के सिर लगा दिया जाए? क्या जरूरी है कि एक दोषी हो तो सभी को उसी नजरिए से तोला जाए?
सिर्फ ये हालिया किस्सा नहीं, ऐसे तमाम किस्से हैं जिसे महिला वर्ग से जोड़ा गया है। चाहे वो गर्लफ्रेंड द्वारा बॉयफ्रेंड को धोखा देने वाली हो या शादी के बाद पढ़ लिखकर पत्नी का सरकारी अफसर बनने वाला… ऐसे किस्सों के नेगेटिव थॉट्स ने हर महिला पर बुरा असर डाला है। पहनावे से किसी को जज किया जाता है तो किसी को उसकी कामयाबी से लोगों के बीच तोला जाता है। किस्से हजार हैं फिर क्यों सबके बीच में नारी बलवान है? किसी कमरे में चीखती नारी की पुकार तो समाज के बीच जगह नहीं बना पाती है, क्यों वो पर्सनल चीजों में जोड़कर घर का मामला कहकर टाल दी जाती है? समाज को आप या मैं अकेले नहीं बदल सकते हैं लेकिन “हम” जरूर बदल सकते हैं। ये बदलाव नेगेटिव तौर पर नहीं बल्कि पॉजिटिव होना चाहिए। एक महिला हो या एक पुरुष दोनों ही एक समान होने चाहिए। जेंडर डिफरेंस की जगह अगर आज भी बनी रही तो आने वाला कल हमेशा की तरह एक कल की तरह ही रह जाएगा।
समाज में समानता का वादा करने वाले तक महिला की कामयाबी की सराहना से डरते हैं। आज भी महिला अगर नेतृत्व करती है तो पुरुषों का इगो हर्ट होता है। आजादी के 78 वर्ष बाद भी देश को सिर्फ एक महिला प्रधानमंत्री मिल पाई है, दो महिला राष्ट्रपति, चुनिंदा महिला सीएम। आजादी के 78 वर्ष बाद भी जब कोई महिला सीएम बनती है तो इसे महिला सशक्तिकरण का घोतक माना जाता है, कब तक नारी को सिर्फ वुमन डे का झुनझुना पकड़ाकर ठगा जाता रहेगा? कितने कॉरपोरेट या सरकारी विभागों की मुखिया कोई महिला है? क्यों आज भी पुरुषों का एक बड़ा वर्ग स्त्री को चाहे घर हो या ऑफिस हमेशा अपने से कम ही तोलता है? कब तक महिला को अबला मानकर उसकी काबिलियत या किसी उपलब्धि को सहानुभूति के नजरिए से देखा जाएगा? सवाल बहुत है पर उम्मीद कम है कि दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी कहने वाले कब उसे अपनी बराबरी का दर्जा, मन से दे पाएंगे!