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ललन ने क्यों छोड़ा अध्यक्ष पद, नीतीश के आने से क्या बदलेगा?,जाने पूरी खबर

राजधानी दिल्ली में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का शुक्रवार को दूसरा दिन है। बैठक से पहले ही पार्टी में कमान संभालने को लेकर तरह-तरह की अटकलें शुरू गई थीं। बैठक में तय हो गया कि ललन सिंह पार्टी की जगह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पार्टी के अध्यक्ष बनेंगे। इसका औपचारिक ऐलान शाम पांच बजे होगा।

इस बीच दिल्ली में लगे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के होर्डिंग ने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। इन होर्डिंग्स में नीतीश की फोटो के साथ लिखा है, ‘प्रदेश ने पहचाना, अब देश भी पहचानेगा।’

पार्टी के तमाम सांसद-विधायक संकेत देते रहे हैं कि नीतीश विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दौड़ में हैं। भाजपा से अलग होने के बाद खुद नीतीश कुमार कई बार बोल चुके हैं कि 2024 के लिए वह पूरे विपक्ष को एकजुट करेंगे। 2003 में अस्तित्व में आई जदयू बिहार में सरकार में हैं।

पहले जानते हैं जदयू का इतिहास क्या है?
जनता दल (यूनाइटेड) का गठन जनता दल, लोक शक्ति और समता पार्टी के के विलय के साथ हुआ था। 30 अक्तूबर 2003 को स्व. जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली समता पार्टी का जनता दल में विलय हो गया। विलय की गई इकाई को जनता दल (यूनाइटेड) कहा गया। इसमें जनता दल का तीर चिन्ह और समता पार्टी का हरा और सफेद झंडा मिलकर जदयूका चुनाव चिन्ह बना।

2004 से 2016 तक शरद यादव पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष रहे हैं। वहीं, नितीश कुमार 2016 से 2020 तक इस पद पर रह चुके हैं। उनके बाद रामचंद्र प्रसाद सिंह 2020 से 2021 तक और उनके बाद ललन सिंह ने जिम्मेदारी संभाली। शुक्रवार को ललन ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया।

बिहार के अलावा अन्य राज्यों में कैसे रहा जदयू का प्रदर्शन? 
बिहार में जदयू 2005 से लगातार सरकार के रूप में प्रतिनिधित्व कर रही है। बिहार के अलावा जदयू झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर ही ऐसे राज्य हैं जहां जदयू को कुछ सफलता मिलती रही है। झारखंड में 2005 में जदयू को छह सीटें मिली थीं। जो 2009 में घटकर दो रह गईं। 2014 और फिर 2019 में जदयू ने यहां 11 और 45 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन एक पर भी जीत नहीं मिली। अरुणाचल प्रदेश में 2019 विधानसभा चुनाव के दौरान 14 सीटों पर जदयू के प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। इनमें सात पर पार्टी को जीत मिली। हालांकि, अब ये सभी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इसी तरह मणिपुर में इस साल हुए चुनाव में 38 सीटों पर जदयू के प्रत्याशी मैदान में थे। इनमें से छह पर नीतीश कुमार की पार्टी को जीत मिली। बाद में इनमें से पांच विधायक भाजपा में शामिल हो गए।

पिछले चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहा है?
बीते कुछ विधानसभा चुनावों में जदयू के प्रत्याशी बिहार, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में जीतने में सफल रहे। बिहार में जदयू के 45 विधायक हैं। वहीं, अरुणाचल प्रदेश के सात और मणिपुर के पांच विधायक नीतीश कुमार की पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं। अब ये सभी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। मणिपुर में अब केवल एक विधायक जदयू के पास है। वहीं, अरुणाचल प्रदेश में जदयू का अब एक भी विधायक नहीं रह गया है।

जदयू की मौजूदा ताकत आंके तो वर्तमान में इसके लोकसभा में सदस्यों की संख्या 16 है। लोकसभा में जदयू के पार्टी के नेता के तौर पर मुंगेर के सांसद राजीव रंजन सिंह ‘ललन सिंह’ हैं। 5 सदस्य राज्यसभा में जदयू का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्यसभा में पार्टी नेता के तौर पर राम नाथ ठाकुर जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। राज्यसभा में उपसभापति के तौर पर 9 अगस्त 2018 से हरिवंश नारायण सिंह पदस्थ हैं। ये उनका दूसरा कार्यकाल है। वर्तमान में बिहार की विधानमंडल में विधानसभा सदस्यों की संख्या 45 और विधानपरिषद सदस्यों की संख्या 24 हैं। बिहार विधानमंडल दल के नेता नीतीश कुमार हैं।

अभी क्या हो रहा है, ललन को क्यों छोड़ना पड़ा अध्यक्ष पद?
गुरुवार से दिल्ली में जदयू की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई है। यह काफी दिन से लंबित थी। इसलिए आयोजन करने का फैसला लिया गया। लोकसभा चुनाव को लेकर यह बैठक हुई है। इसमें तय किया गया है कि ललन सिंह की जगह नीतीश कुमार पार्टी की कमान संभालेंगे।

सियासी जानकारों की मानें तो पार्टी नीतीश का चेहरा लेकर आगामी लोकसभा चुनाव में जाना चाहती है। वहीं, दूसरी ओर खुद ललन लोकसभा चुनाव में दावेदारी ठोक सकते हैं। उधर जो भी अध्यक्ष बने, उनके सामने जदयू-राजद के बीच फिलहाल समन्वय बनाना भी चुनौती होगी और इंडिया एलायंस में भागीदारी को मजबूती से लाते हुए वापस नीतीश कुमार को यहां चेहरा के रूप में लाने की अहम जिम्मेदारी होगी, जिसमें ललन सिंह फेल माने गए हैं।

नीतीश के अध्यक्ष बनने से क्या बदलेगा? 
नीतीश देश की राजनीति में बड़ा चेहरा हैं। 1985 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नीतीश पहली बार बिहार विधानसभा में पहुंचे जिसके बाद उनकी सियासी पार्टी बढ़ती ही गई। वर्ष 1989 में वह नौवीं लोकसभा के सदस्य चुने गए। लोकसभा में अपने पहले कार्यकाल में ही नीतीश कुमार केन्द्रीय राज्य मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। वर्ष 1991 में नीतीश कुमार दोबारा लोकसभा के लिए चुने गए और साथ ही राष्ट्रीय स्तर के महासचिव बनाए गए। वे लगातार वर्ष 1989 से लेकर 2004 तक बाढ़ निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीतते रहे। वर्ष 2001 से 2004 के बीच कैबिनेट मंत्री के तौर पर रेल मंत्रालय जैसी जिम्मेदारी को भी बखूबी संभाला।

नीतीश कुमार सात बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। पहली बार मार्च 2000 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला था। उनके प्रशासन की वजह से उन्हें ‘सुशासन बाबू’ का नाम भी मिला। अब एक बार उन्हें जब पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया है तो उनके सामने कई चुनौतियां और जिम्मेदारियां भी हैं।

जानकार कहते हैं कि विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए इसी शर्त पर सहमति बन सकती है कि जिसके पास ज्यादा पार्टियों का समर्थन होगा, उसे ही चेहरा बना दिया जाएगा। जदयू, राजद और सपा उत्तर भारत के तीन बड़े विपक्षी दल हैं। बगैर इनकी सफलता के विपक्ष की सफलता मुश्किल होगी। उधर देश में इस वक्त पिछड़े वर्ग की राजनीति को काफी हवा मिल रही है। ऐसे में नीतीश कुमार एक उपयुक्त चेहरा हो सकते हैं।

नीतीश के सामने क्या हैं चुनौतियां?
पिछले कुछ सालों में लगातार जदयू की स्थिति खराब हुई है। 2010 में जिस जदयू ने 144 में से 115 सीटों पर जीत हासिल की थी, वो 2015 में 71 और फिर 2020 में 43 पर आकर सिमट गई है। बार-बार गठबंधन बदलने के चलते भी नीतीश कुमार की छवि को भी नुकसान हुआ है।

 

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