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सियासी गलियारों से गद्दी तक !

नोएडा, रविंद्र सिंह। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से सभी दलों का सियासी अभियान राजनीति के पारे को अब गर्मा देगा। यह सियासी फीवर किस हद तक बढ़ेगा यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि सियासत की यह पछुवा हवा किसी दल की बोई हुई फ़सल को या तो बुरी तरह झुलसा देगी या फिर किसी दल की फ़सल पका देगी। अब किसकी फ़सल पकेगी और किसकी झुलसेगी इसका जवाब वक्त देगा। फिलहाल इतना तो तय है कि वर्ष 2022 का चुनाव बेहद रोमांचक होगा। होना भी चाहिए पहली बार देश में ‘हिंदुत्व की लहर’ अपने चरम पर है और इस दल के आगे कांग्रेस सहित अन्य दल खुद की सियासी ज़मीन को किसी भी हाल में बचाने में जुटे हैं। फिलहाल तो सभी के सामने फिल्म शोले का एक ही डायलॉग बना हुआ है – तेरा क्या होगा कालिया? खास बात  यह है हो ना हो यह चुनाव देश की परिस्थितियों को बदल कर रख देगा। राजनीतिक गलियारों में ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली की सियासी गद्दी तक पहुंचने की सीढ़िया उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं। 403 विधान सभा सीटों वाला यह प्रदेश एक बार फिर अपने राजा को चुनने के लिए तैयार है।

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चुनाव भाजपा गठबंधन बनाम सपा गठबंधन के बीच है लेकिन सबकी नजर अपनी बची खुची सियासी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करने वाले दो दलों कांग्रेस और बीएसपी पर टिकी हैं। विधान सभा चुनाव 2017 पर एक नजर डालें तो इसके परिणाम 11 मार्च 2017 में आए थे और इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर भारी बहुमत से विजय हासिल की थी। बीजेपी ने 384 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसे 312 पर जीत हासिल हुई। इस जीत ने बीजेपी को एक विराट राजनीतिक दल की संज्ञा दे दी और यह जीत इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई। बीजेपी के अन्य सहयोगी दल अपना दल (सोनेलाल) ने 11 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें उसे 9 सीटें हासिल हुईं वहीं सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 8 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 4 सीटों पर जीत हासिल हुई। भारतीय जनता पार्टी गठबंधन को 325 सीटों पर जीत हासिल हुई। वहीं समाजवादी पार्टी को मोदी लहर और भाजपा की सोशल इंजिनियरिंग में बड़ा नुकसान हुआ जिसमें सपा ने 311 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसे 47 सीटों पर जीत के साथ संतोष करना पड़ा। कांग्रेस के साथ दो लड़कों की जोड़ी लोगों को पसंद नहीं आयी। कांग्रेस ने 114 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसे 7 सीटों पर ही जीत हासिल हुई और इस बार उसके वजूद पर ही सवाल खड़ा होने लगा कि भविष्य में कांग्रेस कैसे खुद की सियासी जमीन बचा सकेगी। बसपा ने 403 सीटों पर उम्मीदवार उतारे लेकिन 19 सीटें जीत सकी वहीं राष्ट्रीय लोक दल ने 277 पर उम्मीदवारी की लेकिन 1 सीट मिली निषाद पार्टी ने 72 सीटों पर उम्मीदवार उतारे लेकिन उसे 1 सीट मिली और 1462 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे जिसमें 3 को जीत हासिल हुई और कितनों की ही जमानत जब्त हो गई। इस बार नोटा का भी जमकर इस्तेमाल हुआ जिसका असर अन्य दलों पर जरूर पड़ा। नोटा बटन दबाने वालों की संख्या 7.5 लाख से ऊपर दर्ज की गई।

इस बार कौन होगा ‘सरकार’?

इस बार सपा बसपा के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है जहां सपा का रालोद, अपना दल, महान दल, सुभासपा, प्रसपा सहित अन्य दलों के साथ गठबंधन है वहीं भाजपा के खेमे में अपना दल, निषाद पार्टी खड़ी है। सुभासपा पिछले चुनाव में भाजपा के साथ खड़ा था लेकिन अब यह दल सपा के साथ खड़ा है जोकि भाजपा का सियासी गणित काफी हद तक बिगाड़ सकता है। प्रियंका गांधी के आने से कांग्रेस में काफी जान आयी है हालांकि जनता उनको सत्ता के ‘गलियारों से गद्दी तक’ पहुंचाएगी या नहीं यह परिणाम बताएंगे। वहीं बसपा भी धीरे-धीरे गति पकड़ती दिखाई दीं और सुप्रीमो मायावती अब सक्रीय हो चुकी हैं।

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चौंकाएगा उत्तर प्रदेश?

उत्तर प्रदेश की जनता को भोजन में खिचड़ी भले ही पसंद हो लेकिन राजनीति में उसे खिचड़ी सरकार पसंद नहीं है। यह प्रदेश भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है तो जाकिर हुसैन और महादेवी जैसी प्रेरणादायक शख्सियतों का भी प्रदेश है। उत्तर प्रदेश की जनता भावनाओं से ओत-प्रोत है उसकी भावना का कोई एक या दो बार फायदा उठा सकता है लेकिन बार-बार बिल्कुल नहीं। आप पिछले दो चुनाव उठाकर देंखें तो समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला को गजब का मिला, भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिला तो रिकॉर्ड टूट गया जबकि एक वक्त यह पार्टी अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही थी। 2012 और 2017 दोनों ही चुनावों में जनता भावनाओं में बही और उसने एक तरफा वोट करके सपा-भाजपा दोनों ही दलों को खुद को साबित करने का मौका दिया। प्रदेश की जनता में कुछ प्रतिशत ऐसा जरूर होता है कि जातिगत और धर्म के नाम पर वोट पड़े लेकिन एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो शायद ज्यादा पढ़ा लिखा भले ही नहीं है लेकिन समझदार और भावनाओं से भरा जरूर है और वह है किसान और गरीब तबका। यह दो तबके ना राजनीतिक करते हैं और ना पसंद करते हैं। ऐसे में इनका वोट बैंक सियासी उलटफेर करता है ना कि सोशल इंजिनियरिंग। आपको याद होगा लोकसभा में जीत के बाद खुद अमित शाह परिणामों से चौंक गए थे और उन्होने कहा था कि हमें जीत का भरोसा था लेकिन जीत इतनी बड़ी होगी मैनें नहीं सोचा था। इससे यह स्पष्ट है कि जिस तबके को हम हमेशा हाशिये पर रखते हैं असली खेल वही बिगाड़ता और बनाता है। यह मेरी व्यक्तिगत समझ है कि कहीं ऐसा ना हो धर्म, जाति के गठबंधन से प्रदेश ऊबकर कांग्रेस को एक तरफा वोट देकर विजय रथ पर सवार करवा दे।

कांग्रेस-बसपा

कांग्रेस लंबे समय से सियासी ज़मीन बचाने के लिए संघर्ष कर रही है वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती का शासन भी अफसरशाही पर लगाम लगाने में काफी हद तक कामयाब रहा था हालांकि सत्ता गंवाने से पहले पहली बार असहाय दिख रहीं बसपा सुप्रीमों को भावनात्मक अपील करते देखा गया था जब उन्होने खुद को दलित की बेटी बताया था। मुझे लगता है राष्ट्रवाद, जातिवाद, हिंदुत्व, विकास, और अनर्गल बयानों से आवाम बुरी तरह से ऊब चुकी है और अब उसको ऐसा राजा चाहिए जो शांति व्यवस्था के साथ ही किसी भी परिवार की व्यक्तिगत और समाजिक जिंदगी की शांति को बनाए रखे। बसपा से दूरी इसलिए बना सकती है जनता क्योंकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपना विचार सोशल मीडिया पर स्पष्ट कर दिया कि वह सपा को हराने के लिए किसी से भी गठबंधन कर सकती हैं तो ऐसे में जनता शायद दोबारा उन पर भरोसा करने से पहले सोचेगी। अब बात कांग्रेस की करें तो प्रियंका गांधी का अपना कोई रिकॉर्ड खराब नहीं है, साथ ही उन्होने ‘बेटी हूं लड़ सकती हूं’ लड़ सकती हूं का नारा देकर प्रदेश की जनता से एक भावुक अपील कर दी है जिसका असर धीमे-धीमे ही सही पर हो रहा है। उस पर प्रियंका की कुछ तस्वीरें उन्हे जनता के दिलों में उतरने के लिए मजबूर कर रही हैं। जहां बाकी दल वर्चुअली जनता से रूबरू हो रहे थे वहीं बारिश के बीच प्रियंका ठंड के मौसम में भी प्रचार करतीं नज़र आयीं। तो ऐसे में उत्तर प्रदेश की जनता कहीं अपना सबसे कमजोर दिख रहे खिलाड़ी को ही सबसे ताकतवर ना बना दे। फिलहाय यह कहना जल्दबाजी ही है और यह एक व्यक्तिगत मत के तौर ही देखा जाना चाहिए। बाकी बातें तो परिणाम आने के बाद ही पता चलेंगी।

क्या है राजधर्म?

ऐसा कहा गया है कि मौसम की तरह किसी राज्य का चक्र भी परिवर्तनशील होता है। राजतंत्र से लोकतंत्र, लोकतंत्र से भीड़तंत्र और भीड़तंत्र से अफसरशाही के बीच यह परिवर्तन चक्र परिवर्तित होता रहता है। कोई राज्य को ईश्वरीय शक्ति मानता है तो कोई इसमें समौझाता सिद्धांत देखता है, कभी विकासवाद, कभी हिंदुत्व तो कभी जातिवाद। किसी ना किसी रूप में परिवर्तन जरूर देखने को मिला है। ऐसा कहा भी गया है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। खैर चिंतकों ने राज्य और इसके शासकों के लिए कई बातें कही हैं जोकि देश की तमाम प्रतिष्ठित पुस्तकालयों में धूल फांक रही हैं लेकिन शायद वर्तमान समय के शासक इतिहास में दर्ज उन पन्नों से सीख नहीं लेना चाहते इसलिए उन्होने इसे पढ़ा हो कह पाना मुश्किल है। वर्तमान में लोकतंत्र को मजबूती देने की बात कहने वाले नेताओँ की कार्यशैली से पता चल ही रहा है कि उनको अपने कर्तव्यों का कितना ज्ञान है।

फिलहाल यही कह सकते हैं समय का चक्र किसी बिंदु को कभी ऊपर तो कभी नीचे ले जाता है। इसलिए कभी भी किसी को कमजोर समझना जिंदगी और सियासत के गलियारों में अबतक भारी भूल ही साबित होता आया है।

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