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शास्त्रों के अनुसार तो इनके पुत्र हैं देवर्षि नारद…

शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद ब्रह्माजी के छठे मानस पुत्र हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है— देवर्षीणां च नारद। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। देवर्षि नारद अपने पूर्व जन्म में गंधर्व थे। एक बार ब्रह्माजी की सभा में सभी देवता और गंधर्व भगवान नाम का संकीर्तन करने के लिए एकत्र हुए। वहां नारदजी को सभा में स्त्रियों के साथ विनोद करते देख ब्रह्माजी ने इन्हें दरिद्र होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से नादरजी का जन्म एक दरिद्र परिवार में हुआ। जन्म के समय ही इनके पिता की मृत्यु हो गई।
इनकी माता दासी का काम करके इनका भरण-पोषण करने लगीं। एक दिन इनके गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहीं ठहर गए। नारदजी बचपन से ही सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर उन्हें भगवान नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया। एक दिन सांप के काटने से इनकी मां की भी मृत्यु हो गई। उस समय उनकी आयु मात्र पांच वर्ष थी। माता के वियोग में वे भ्क्तिभाव से प्रेरित होकर भजन करने लगे। एक दिन जब नारदजी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक उनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखा कर अंतर्ध्यान हो गए। भगवान के पुन दर्शन करने के लिए नारदजी व्याकुल होने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई— ‘हे पुत्र! अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में पुन दर्शन प्राप्त करोगे।’ समय आने पर नारदजी का पंचभौतिक शरीर छूट गया। कल्प के अंत में वे ब्रह्माजी के मानस-पुत्र ‘नारद’ के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद को भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत ‘भक्ति-सूत्र’ में भक्ति की बहुत सुंदर व्याख्या है। हमेशा भक्तों के भले के लिए ब्रह्मांड में विचरने वाले नारदजी को समस्त लोकों में निर्बाध गति का वरदान प्राप्त है।

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