वाराणसी में आयोजित अखिल भारतीय शिक्षा समागम का उद्घाटन करते हुए PM मोदी ने कही ये बात, पढ़े पूरी खबर
कुछ संयोग बड़े दिलचस्प होते हैं, जैसे अतीत की परछाई और भविष्य की तस्वीर एकसाथ एक तल पर उभर आई हो। ऐसा ही एक संयोग निर्मित हुआ जब बीते दिनों बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय ‘अखिल भारतीय शिक्षा समागम’ का आयोजन हुआ। यह आयोजन भविष्य के भारत में ‘नई शिक्षा नीति : 2020’ की भूमिका पर केंद्रित था। संक्षेप में कहें तो एकदम तेजी से बदलती दुनिया में भारत की स्थायी और सशक्त भूमिका में शिक्षा किस प्रकार योगदान दे सकती है, यह आयोजन के केंद्र में था। जहां यह आयोजन हुआ उसी विश्वविद्यालय का कुलगीत काशी को चित्रित करते हुए कहता है, ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी। विविध कला अर्थशास्त्र गायन, गणित खनिज औषधि रसायन। प्रतीचि-प्राची का मेल सुंदर, यह विश्वविद्या की राजधानी।’
प्रसिद्ध विज्ञानी डा. शांतिस्वरूप भटनागर काशी को विद्या के एक ऐसे केंद्र के रूप में परिभाषित करते हैं जिसका विस्तार कला से लेकर विज्ञान तक है और जो भारतीय मूल्यों को धारण करते हुए पश्चिमी विकास को अपनाने की सहजता रखता है। आज जब नई शिक्षा नीति की बात हो रही है तो उसके मूल में भी यही है। यही विस्तार, यही विविधता, यही दृष्टि। अक्सर मुहावरों में जिसे ‘विश्वगुरु’ होना कहते हैं, उसके केंद्र में भी यही संकल्पना है। साथ ही जिस ‘न्यू इंडिया’ की बात सरकार द्वारा बार-बार की जाती है वह भी विविध क्षेत्रों में सशक्त भारत को ही संदर्भित है। इस समागम में जिन पक्षों पर बात हुई उसका प्रस्थान बिंदु भी नई शिक्षा नीति ही थी, इसलिए इसे विस्तार से समझते हैं कि यह नीति कैसे भविष्य के भारत की बात करती है।
नई शिक्षा नीति और न्यू इंडिया : वर्ष 2020 की नई शिक्षा नीति आने के पहले भारतीय शिक्षा वर्ष 1986 में निर्मित नीति से ही संचालित होती रही है। स्वाभाविक बात है कि इन 34 वर्षो में समय ने कई करवटें बदली हैं, इसलिए आकांक्षी भारत को दशकों पुरानी रीति-नीति से नहीं चलाया जा सकता। इसी क्रम में वर्तमान सरकार ने जून 2017 में एक समिति बनाई जिसने वर्ष 2019 में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ का मसौदा प्रस्तुत किया। फिर सरकार ने इस मसौदे पर देशभर से सुझाव आमंत्रित किए और उसके आधार पर ‘नई शिक्षा नीति 2020’ जारी किया। अब यदि हम इस नीति का मूल्यांकन करें तो मूलत: चार कसौटियां बनती हैं, जिसके आधार पर हम इसके उचित अनुचित होने के निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं। इसमें पहली कसौटी है, यह शिक्षा के सर्वसुलभ होने पर कितना जोर देता है। दूसरी कसौटी शिक्षा और समाज की अंत:क्रिया है। तीसरी कसौटी में हम नवाचार को प्रोत्साहित करने की आकांक्षा को परख सकते हैं और अंतिम कसौटी यह हो सकती है कि शिक्षा नीति आर्थिक अपेक्षाओं से किस प्रकार का संबंध रखती है। इन चारों पक्षों पर गौर करते हैं।
सब तक शिक्षा की पहुंच : सबको शिक्षा मिले यह न केवल प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है, बल्कि यह किसी भी राष्ट्र के उत्थान की बुनियादी शर्त भी है। सिद्धांत के तौर पर देखें तो इसे पूर्व में ही अपनाया जा चुका है जब 86वें संविधान संशोधन के माध्यम से शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया। फिर वर्ष 2009 में ‘निश्शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम’ के माध्यम से इसे क्रियान्वित भी कर दिया गया। अब सवाल है कि नई शिक्षा नीति यहां से कितनी आगे बढ़ी है और कहां तक जाने की इच्छा रखती है?
नई शिक्षा नीति इस अधिकार को और अधिक व्यापक बनाती है। वस्तुत: अभी तक राज्य छह से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य एवं निश्शुल्क शिक्षा देने के लिए कटिबद्ध है। वर्तमान नीति के माध्यम से राज्य ने इसे तीन से 18 वर्ष तक विस्तारित करने की मंशा दिखाई है। यह एक प्रभावशाली कदम है। इस संदर्भ में नई शिक्षा नीति ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा’ (ईसीसीई) की बात करती है। इसका उद्देश्य बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करना है। यानी छह वर्ष की अवस्था में सीधे पहली कक्षा में नामांकन करा देने के बजाय सरकार तीन वर्ष की अवस्था से ही बच्चों को इस तरह तैयार करेगी कि वे मानसिक रूप से इसके प्रति सहज हो जाएं। इसके लिए आंगनबाड़ी व अन्य समर्थ संस्थानों की मदद ली जाएगी। यह परिवर्तन न केवल शिक्षा को और अधिक आकर्षक बनाएगा, बल्कि आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की स्थिति में भी इससे सुधार होगा।
सर्वसुलभ शिक्षा के संदर्भ में इस शिक्षा नीति का दूसरा जोर बेहतर क्रियान्वयन और संसाधनों के अनुकूल उपयोग पर है। इसके तहत कुछ प्राथमिक लक्ष्य तय किए गए हैं, जैसे वर्ष 2030 तक प्री-स्कूल से माध्यमिक स्तर पर 100 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात को प्राप्त करना, ड्राप आउट अनुपात को कम करना खासकर पांचवीं और आठवीं कक्षा के बाद स्कूल छूटने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना, शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को प्रत्येक 30 छात्रों पर एक शिक्षक तक लाना तथा वंचित क्षेत्र में इस अनुपात को और कम करना। ये सभी ऐसे लक्ष्य हैं जिनसे सभी तक शिक्षा व्यावहारिक रूप से पहुंच पाएगी। संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के लिए ‘क्लस्टर आधारित उपयोग’ को इसमें बढ़ावा दिया गया है। इसका अर्थ है कि एक निश्चित क्षेत्रफल के अंतर्गत आने वाले स्कूल पुस्तकालय, प्रयोगशाला व खेल के मैदान आदि आपस में साझा करें। इससे न केवल सामूहिकता बढ़ेगी, बल्कि इन संसाधनों का बेहतर क्रियान्वयन भी संभव हो पाएगा। अत: हम कह सकते हैं कि वर्तमान शिक्षा नीति सर्वसुलभ शिक्षा पर काफी गंभीरता से विचार करती है।
समाज से जुड़ी शिक्षा : एक बेहतर और उपयोगी शिक्षा को परखने का एक निर्धारक यह भी कि वह अपने समाज से कितनी जुड़ी है। इस संदर्भ में नई शिक्षा नीति काफी सचेत और संतुलित नजर आती है। इसकी पुष्टि के लिए कुछ प्रविधानों को देखते हैं। सबसे पहले नई शिक्षा नीति इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाए। यह नीति पांचवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से लागू करने और इसे आठवीं तक विस्तारित करने की अपेक्षा करती है। मातृभाषा में शिक्षा को प्रोत्साहित करने का सीधा तात्पर्य यही है कि इससे न केवल बच्चे अधिक तेजी से और बेहतर ढंग से सीख पाएंगे, बल्कि वे अपने समाज और संस्कृति से अधिकतम साम्य स्थापित कर पाएंगे। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं होती, बल्कि वह सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक निरंतरता का वाहक भी होती है। अत: यह प्रयास निश्चित ही शिक्षा को समाज से जोड़े रखेगा।
इसके अलावा विभिन्न भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए इसमें ‘त्रिभाषा फामरूला’ को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, ताकि हम देश के भीतर के अनेक समाजों को समझ सकें। साथ ही नई शिक्षा नीति समाज को शिक्षण प्रक्रिया में शामिल होने के लिए भी आंमत्रित करती है तथा हर वयस्क साक्षर से यह अपेक्षा करती है कि वह इसमें दिलचस्पी दिखाए। पाठ्यक्रम के स्तर पर भी केंद्रीय जरूरतों के साथ ‘स्थानीय संदर्भ’ पर विशेष बल दिया गया है। इसके अतिरिक्त अनेक जगहों पर समाज से जुड़ने की बात की गई है। इस लिहाज से देखें तो यह नीति समाजोन्मुख प्रतीत होती है।
नई शिक्षा नीति और नवाचार : शिक्षा व्यवस्था जितनी अधिक परिवेश सापेक्ष, खुली और लचीली होगी, वह नवाचार को उतना ही अधिक प्रोत्साहित करेगी। इस संदर्भ में नई शिक्षा नीति एक व्यापक रणनीति को संबोधित करती है जो स्कूली शिक्षा से ही सीखने पर अधिक बल देती है। इसमें कहा गया है कि परीक्षा पर न्यूनतम आश्रित हुआ जाए और पाठ्यक्रम को भी इतना लचीला बनाया जाए कि विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुरूप आगे बढ़ें। इसके लिए शिक्षण की व्यावहारिक पद्धतियों को अधिक से अधिक अपनाने की बात की गई है, ताकि शिक्षा और परिवेश का प्रत्यक्ष संबंध स्थापित हो। आज जहां इजराइल और दक्षिण कोरिया जैसे देश अनुसंधान व नवाचार पर जीडीपी का चार प्रतिशत से अधिक खर्च कर रहे हैं, वहीं भारत केवल 0.69 प्रतिशत ही खर्च कर रहा है। नई शिक्षा नीति इसमें बढ़ोतरी की बात करती है। साथ ही उच्चतर शिक्षण संस्थानों को कला, समाज एवं विज्ञान के समुच्चय के रूप में विकसित करने की वकालत करती है, ताकि समझ अधिक समावेशी हो और नए आचार विचारों की ओर आग्रह बढ़े। इस संदर्भ में शिक्षण संस्थानों को और स्वायत्तता देने की बात की गई है।
भारत एक जनांकिकीय लाभांश वाला देश है। यानी हमारे पास सबसे बड़ा युवा श्रम बल है जो देश को तेजी से आगे ले जा सकने की क्षमता रखता है। लेकिन ऐसा तब हो पाएगा जब ये युवा बेहतर कौशल से सज्जित हों तथा गतिशील आर्थिक गतिविधियों के प्रति सहज हों। इसलिए शिक्षा का एक रूप यह भी है कि वह अपने नागरिकों को कितना हुनरमंद बनाती है। इस संदर्भ में नई शिक्षा नीति कहीं अधिक मुखर है तथा इस रूढ़ि को तोड़ने का आग्रह करती है जहां ‘व्यावसायिक शिक्षा’ को मुख्यधारा की शिक्षा से कमतर माना जाता है। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो 19 से 24 वर्ष के आयुवर्ग वाले भारतीय कार्यबल में से मात्र पांच प्रतिशत लोगों ने व्यावसायिक शिक्षा हासिल की है, जबकि अमेरिका, जर्मनी और दक्षिण कोरिया में यह दर क्रमश: 52, 75 और 96 प्रतिशत है।
अत: आवश्यक है कि व्यावसायिक शिक्षा के प्रति सहजता स्थापित की जाए। यह दस्तावेज इस बात पर जोर देता है कि व्यावसायिक शिक्षा को इस तरह अपनाया जाए कि धीरे धीरे यह मुख्यधारा की शिक्षा से मिल जाए। इसके लिए स्कूली स्तर से ही शुरुआत हो तथा प्रत्येक बच्चे को कम से कम एक व्यवसाय से जुड़े कौशलों को सिखाया जाए जो कालेज और विश्वविद्यालय में क्रमश: अधिक घनीभूत होता जाए। कुल मिलाकर यह शिक्षा नीति राष्ट्रीय आवश्यकताओं को व्यापक रूप से संबोधित करती है। इसमें एक बेहतर भविष्य का सपना है और उसे पूरा करने के लिए जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की मंशा भी है। यह काशी के ‘सर्वविद्या की राजधानी’ होने की पवित्र इच्छा का ही दस्तावेज है। संयोग से इस दस्तावेज को लागू करने के लिए अखिल भारतीय समागम भी इसी सर्वविद्या की राजधानी में आयोजित हुआ। हम उम्मीद कर सकते हैं कि विश्वगुरु बनने की राह यहीं से शुरू होती हो।