भारत की आजादी के बाद से ऐसे कई मौके आए हैं, जब अलग-अलग कारणों से भारत-अमेरिका के रिश्ते या तो रुखे रहे हैं। इतना ही कुछ मौके तो ऐसे थे, जब दोनों देश दुश्मनी की राह तक पर बढ़ चुके थे। आइये जानते हैं ऐसे ही कुछ घटनाक्रमों के बारे में, जब भारत और अमेरिका सीधी टक्कर लेने की स्थिति में आ गए थे…
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 7 अगस्त से 25 फीसदी आयात शुल्क लागू कर दिया है। इसके अलावा रूस से तेल खरीदने के लिए भारत पर27 अगस्त से 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाने की भी घोषणा की गई है। अधिकारियों का कहना है कि ट्रंप के इन कदमों ने अमेरिका और भारत के रिश्तों को दो दशकों में सबसे निचले स्तर पर ला दिया है। दूसरी तरफ भारत ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसलों को लेकर सख्त रुख अपनाने के संकेत दे दिए हैं।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब भारत और अमेरिका के बीच किसी बात को लेकर तनातनी की स्थिति बनी है। भारत की आजादी के बाद से ऐसे कई मौके आए हैं, जब अलग-अलग कारणों से भारत-अमेरिका के रिश्ते या तो रुखे रहे हैं। इतना ही कुछ मौके तो ऐसे थे, जब दोनों देश दुश्मनी की राह तक पर बढ़ चुके थे। आइये जानते हैं ऐसे ही कुछ घटनाक्रमों के बारे में, जब भारत और अमेरिका सीधी टक्कर लेने की स्थिति में आ गए थे…
1. 1949: जब अमेरिका के पक्ष में जाने को तैयार नहीं हुए नेहरू
अमेरिका और भारत के बीच शुरुआत से ही कुछ चीजें समान रहीं। जैसे उपनिवेशवादी ताकतों से लंबी लड़ाई के बाद आजादी, लोकतंत्र, आदि। हालांकि, इसके बावजूद भारत ने स्वतंत्रता के बाद किसी एक पक्ष की तरफ झुकाव नहीं रखा। ऐसे में जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1949 में अपने पहले अमेरिका दौरे पर पहुंचे तो उनका स्वागत तो जोरदार तरीके से हुआ, लेकिन दौरा खत्म होते-होते वह समझ गए कि अमेरिका से उनकी करीबी ज्यादा समय तक नहीं चलेगी।
दरअसल, जब नेहरू अमेरिका पहुंचे तो वे राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने एयरपोर्ट पहुंचकर उनका स्वागत किया था। नेहरू का कहना था कि दो गणतंत्र, एक पश्चिमी दुनिया का और एक पूर्वी दुनिया का, साथ में दोस्ताना सहयोग के कई रास्ते खोज लेंगे, जिससे दुनिया और मानवता का भला होगा। हालांकि, जैसे-जैसे दौरा बीता नेहरू के इस दौरे को मुश्किलों भरा कहा जाने लगा। अमेरिकी राजदूत हेनरी एफ. ग्रेडी ने एक समय नेहरु से यहां तक कह दिया था कि उन्हें तुरंत लोकतांत्रिक पक्ष की तरफ आ जाना चाहिए। हालांकि, नेहरु हमेशा से बहुध्रुवीय दुनिया के पक्ष में रहे थे और सोवियत संघ को भी मिलाकर चलना चाहते थे। इसके चलते वे सिर्फ अमेरिका की तरफ झुकाव के लिए तैयार नहीं दिखे।
इतना ही नहीं नेहरु ने कुछ समय पहले ही पाकिस्तान की तरफ से कब्जाए कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए अमेरिका की मध्यस्थता स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इसका असर यह हुआ था कि अमेरिकी मीडिया में नेहरू के अमेरिकी दौरे को ‘फ्लॉप’ करार दिया जाने लगा। अमेरिकी मैगजीन पॉलिटिको ने उस दौरान एक लेख में कहा था कि अमेरिका ने उस देश को आर्थिक मदद देने से इनकार कर दिया, जो ब्रिटेन से आजाद हुआ था और अमेरिका के सोवियत संघ के साथ बढ़ते शीत युद्ध के बीच खुद को निष्पक्ष करार देता है।
थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट की उस दौर की एक रिपोर्ट- द ओरिएंटेशन इन द ओरियंट (1949-52) में कहा था कि अमेरिका ने भारत को चीन के खिलाफ कहीं से भी कूटनीतिक तौर पर अहम नहीं समझा था। अमेरिका सिर्फ कौशल और उद्योग की क्षमता के आधार पर ही देशों को अहमियत देता था।
अमेरिकी इतिहासकार डेनिस मेरिल ने इस पूरे दौरे का सार बताते हुए कहा था कि अमेरिका की तरफ से अपनी अमीरी का प्रदर्शन नेहरू को खास अच्छा नहीं लगा। इससे जुड़ा एक वाकया बताते हुए मेरिल ने कहा कि जब नेहरू के लिए अमेरिकी व्यापारियों के साथ एक डिनर का आयोजन किया गया था तब उनके पास में बैठे एक शख्स ने टेबल की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि पूरी पार्टी 20 अरब डॉलर का प्रतिनिधित्व करती है। बताया जाता है कि इस एक वाकये ने खास तौर पर नेहरू को नाराज किया था।
2. 1971 का युद्ध: जब पाकिस्तान की तरफ झुका था अमेरिका
भारतीय सेना की पूर्वी कमान ने तीन दिन पहले ही 1971 के भारत-पाकिस्तान संघर्ष से ठीक पहले की एक पुरानी खबर को साझा कर अमेरिका की दोहरी नीति की ओर इशारा किया। दरअसल, 5 अगस्त 1971 की इस पुरानी खबर में बताया गया था कि अमेरिका किस तरह 1954 से पाकिस्तान को हथियार दे रहा था, और 1971 को जंग से पहले तक करीब 2 अरब डॉलर के हथियार भेज चुका था।
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